समीक्षा

किस्सागोई, एक अभिनव प्रयोग

सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित एक मनुष्य द्वारा की जानेवाली समस्त संभव सेवाओं में से सर्वाधिक महान् सेवा है—(अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा के

प्रति प्रेम उत्पन्न करना। आज की वर्तमान शिक्षा केवल भौतिक विकास के लिए है। इस कारण से बालक का अधूरा विकास ही हो पा रहा है। भौतिक के साथ सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास होने से बालक का संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है। केवल भौतिक ज्ञान अर्जित करने के कारण स्कूल के छात्र योजनाबद्ध तरीके से अपराध करते पाए जा रहे हैं। बाल एवं युवा छात्रों में ढेरों क्षमताएँ तथा ऊर्जा होती है। इसे सही दिशा की ओर मोड़ने की आवश्यकता है, ताकि क्षमताओं का दुरुपयोग न हो। अतः आज बालक के सामाजिक एवं आध्यात्मिक गुणों को बाल्यावस्था से ही विकसित करना भी उतना ही आवश्यक है, जितना उसको पुस्तकीय ज्ञान देना। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बालक को भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार की उद्देश्यपूर्ण शिक्षा देकर उसे संतुलित, अच्छा और पूर्णतया गुणात्मक व्यक्ति बनाना चाहिए।

शिक्षा के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, “सच्ची शिक्षा वह है, जिसे पाकर मनुष्य अपने शरीर, मन और आत्मा के उत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास कर सके, उसे प्रकाश में ला सके।” श्री अरविंद के शब्दों में, “वही शिक्षा सच्ची व वास्तविक है, जो व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का विकास कर उसमें पूर्णता लाए, मानव जीवन को सफल बनाने में उसकी सहायता करे और जीवन तथा मानव जाति के मन एवं आत्मा की संपूर्णता की अभिव्यक्ति कर मनुष्य व राष्ट्र में सच्चा और अनिवार्य संबंध स्थापित करने में सहायक हो।”

स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा का प्रयोजन बताते हुए कहा था, “शिक्षा का अर्थ है—पूर्णता की अभिव्यक्ति।” मनुष्य की चेतना प्रत्येक ‘शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक’ स्तर पर विकसित हो। उनके अनुसार शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है—चरित्र निर्माण। प्रधानाचार्य श्री शिव नारायण सिंह को हमेशा ध्यान रहा है कि शिक्षा की हमारी संस्थानिक व्यवस्था सिर्फ एक निश्चित पाठ्यक्रम तैयार कराने का काम करती है और शिक्षा के पहले मोरचे, चरित्र निर्माण पर चूक जाती है, जिसका परिणाम है समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और आपाधापी।

देश के बड़े पदों पर आसीन उच्च शिक्षा प्राप्त अधिकारियों के भ्रष्टाचार में संलिप्त होने की घटनाएँ प्रायः समाचार-पत्रों में आती रहती हैं। ऐसी स्थिति में कल के भारत के निर्माता छात्रों के साथ शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को सामने रखकर अभिनव प्रयोग का प्रयास किया है, जिसके लिए उन्हें ‘मॉडर्न डे वर्जन ऑफ विष्णु शर्मा’ कहा जा रहा है, जो पंचतंत्र की कहानियों के रचनाकार हैं। वास्तव में शिव नारायण सिंह की कहानियाँ उनकी उद्बोधन कथाएँ हैं, जिन्हें वे प्रत्येक दिन विद्यालय में कक्षारंभ होने से पूर्व प्रार्थना-सभा में अपने छात्रों के सुनाते हैं। उनके उद्बोधन आख्यान को सुन रहे ध्यानस्थ छात्र कायांतरण की प्रक्रिया से गुजर रहे होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे मेटामॉर्फसिस की कीमियागरी कर रहे हैं। वैसे ही जैसे महात्मा बुद्ध के आख्यान से हिंसक अंगुलिमाल अहिंसक बन जाता है। कोई चांडाशोक अशोक महान् बन जाता है।

किस्सागो शिव नारायण सिंह जब प्रेस्टिज इंटरमीडिएट कॉलेज देवरिया में प्रार्थना-सभा के पश्चात् किस्सा सुना रहे होते हैं, तब पूरे विद्यालय में एक परिवार का वातावरण उपस्थित होता है। जब वे वेद, उपनिषद्, पुराण और आधुनिक विज्ञान के उद्धरण प्रस्तुत कर रहे होते हैं तब लगता है, ऋषिकुल की परंपरा जीवंत हो गई है। गुरु और शिष्य के बीच स्थापित तादात्म्य नित नवीन संभावनाओं को जन्म देता है। वे उद्बोधन कथाओं और प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से छात्रों के व्यक्तित्व निर्माण का प्रयास कर रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में छात्रों को सीखने और संस्कारित होने का परिवार जैसा अवसर प्राप्त होता है। वे संपूर्ण भारतीय शिक्षा जगत् में एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि कैसे एक संस्थानिक व्यवस्था में रहते हुए भी छात्रों के बौद्धिक और नैतिक स्तरोन्नयन के द्वार खोले जा सकते हैं।

गांधीजी के हिंद स्वराज में शिक्षा का अनिवार्य माध्यम है स्वभाषा और पहली शर्त है—धर्म एवं नीति की शिक्षा कैसे दी जाए? वे जोर देकर कहते हैं, “सबसे पहले तो धर्म एवं नीति की शिक्षा दी जानी चाहिए।” ऐसी शिक्षा जो चरित्र का विकास करे, सकारात्मक मूल्यों का आधान करे, चरित्र की कमियों को दूर करके उसे परिष्कृत करने का कार्य करे, यही धर्म का उद्देश्य है। सारा ज्ञान आपके भीतर है, वह केवल व्यक्त होता है। शिक्षा उसी को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया है, जो वह चरित्र-निर्माण के माध्यम से संपन्न करती है। इन्हीं अर्थों में वे कहते हैं, ‘शिक्षा जीवन की तैयारी है।’

शिक्षा के इसी गांधीवादी चिंतन धारा को मूर्त रूप देने का काम करते हैं शिव नारायण सिंह। अपने उद्बोधन आख्यानों के माध्यम से उन्होंने विचार संप्रेषण की अत्यंत प्राचीन और प्रभावशाली विधा किस्सागोई का अपने ढंग से प्रयोग करने का काम किया है। किस्सा कहानी के माध्यम से कोई एक संदेश विद्यार्थियों के अवचेतन में गहरे उतार देना उनकी कला की अपनी विशेषता है। वास्तव में उनकी उद्बोधन कथाओं में किस्सागेई की पारंपरिक विधा जैसा कुछ भी नहीं है। उनका काम तो विद्यार्थियों के मन-मानस की अनगढ़ मिट्टी को एक कुम्हार की तरह ठोंक-पीटकर एक सुघड़ आकार देना होता है। एक सुनहरे भविष्य को मूर्त रूप देना होता है।

यथार्थ और कल्पना के धागों में बुनी फंतासी के माध्यम से विद्यार्थियों के अवचेतन में उतरने की मनोवैज्ञानिक कला में महारत हासिल है शिव नारायण सिंह को, इसे पाठक या श्रोता के मन में पैदा हुए जादुई आकर्षण से समझा जा सकता है।

बहुत ही अल्प समय में एक-पर-एक पुस्तकों के छह भागों का प्रकाशित होना उनकी इस कला की लोकप्रियता का प्रमाण है। विश्व पुस्तक मेले में जहाँ अपनी पुस्तक, ‘विद्यार्थियों से...’ की अच्छी बिक्री के कारण चर्चा में रहे, वहीं अब तो उन्हें देश के नगरों, महानगरों में विभिन्न संस्थाओं द्वारा उद्बोधन आख्यानों के लिए आमंत्रित भी किया जाने लगा है।

‘विद्यार्थियों से...’ पुस्तक में जीवनानुभव के ऐसे बिंदुओं को भी उन्होंने प्रकाश में लाए हैं कि बच्चे ही नहीं, बड़े भी एक बार सोचने के लिए बाध्य हो जाते हैं। उनकी उद्बोधन कथाएँ विद्यार्थियों को कुछ सोचने-समझने के लिए अभिप्रेरित तो करती ही है, जीवन में कुछ कर गुजरने के लिए उत्साह से भर देती है। वे अपने छात्रों में समाज और पर्यावरण के प्रति दायित्वबोध जगाते हैं तो विश्व व्यवस्था में उपजी चुनौतियों के प्रति सतर्कता भी। उनकी चिंता नई वैश्विक परिस्थिति में ऐसे नागरिक निर्माण की है, जिसमें मनुष्यता की सभी संभावनाएँ एक साथ पुष्पित-पल्लवित हो सकें, जहाँ मानवता अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सके। यही चिंता उन्हें किस्सागो बना देती है। सच तो यह है कि वे लिखते नहीं, मुखर रूप से सोचते हैं। उनका कहना है, “मेरा काम समकालीन कथा-लेखन जैसा नहीं है, इसीलिए किसी भी कथा-लेखक से मेरे प्रभावित होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। हाँ, मेरे संज्ञान में आनेवाली हर छोटी-बड़ी घटनाएँ और प्रेरणादायक चरित्र अवश्य मुझे प्रभावित करते हैं, क्योंकि अंततः वे ही किस्से के विषय बनते हैं।” यह सब बातें कुल मिलाकर उन्हें शिक्षा की दुनिया में एक नई राह बनानेवाला प्रयोक्ता बनाती है।

‘विद्यार्थियों से...’ का प्रत्येक खंड निश्चित ही छात्रों के व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास में सहायक सिद्ध होगा। आज के उपभोक्तावादी समाज में जब नैतिक मूल्यों का क्षरण तेजी से हो रहा है और सामाजिक व्यक्ति विघटन की प्रक्रिया तेज हुई है, समाज को सही दिशा देने में कारगर सिद्ध होगी। पुस्तक की भाषा विद्यालय की कक्षा में प्रयुक्त होनेवाली अध्यापक की भाषा है। जिसका विद्यार्थी से सीधा संवाद करना अपनी विशेषता है। वे मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हेतु मात्र यूटोपिया नहीं गढ़ते बल्कि उसे यथार्थ के धरातल पर उतारते भी हैं, जो गांधीजी की तरह नए समाज की रचना के लिए एक अभिनव प्रयोग है।

धन्य है, भारत की भूमि तथा वह पूजनीय माता-पिता, जिन्होंने श्री शिव नारायण सिंहजी जैसी महान् विभूति को जन्म दिया है। हम उनके पूजनीय माता-पिता तथा श्री शिव नारायण सिंहजी की आत्मा में विराजे परमात्मा को शत-शत नमन करते हैं। प्रेस्टिज इंटरमीडिएट कॉलेज के छात्र-छात्राएँ, अध्यापक-अध्यापिकाएँ तथा अभिभावक बहुत ही भाग्यशाली हैं, जिन्हें श्री शिव नारायण सिंहजी के प्रेरणादायी विचारों से लाभान्वित होने का सुअवसर मिला है।

हमारा मानना है कि श्री शिव नारायण सिंहजी द्वारा लिखित ‘विद्यार्थियों से...’ शृंखला की प्रत्येक पुस्तक, वास्तव में ऐसी बहुमूल्य कृति है, जो प्रत्येक विद्यार्थी के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास में मील का पत्थर सिद्ध हो रही है। हमारा यह भी मानना है कि लक्ष्य, धैर्य और कल कभी नहीं आता। महानता का सूत्र, कारवाँ, संकल्प, ज्ञान, वास्तविक मूल्यांकन, पारस, संस्कार का प्रभाव, आशीर्वाद, सत्य की खोज तथा जीवन-मूल्य आदि जैसी अत्यंत प्रेरक कहानियाँ प्रत्येक बच्चे का जीवन-पर्यंत मार्गदर्शन प्रदान करती रहेंगी।

वास्तव में उनकी ये पुस्तकें आज की बाल एवं युवा पीढ़ी के साथ ही आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी एक स्वस्थ चिंतन के साथ सर्वोत्तम जीवन-मूल्यों व संस्कारों को देनेवाली विश्व की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक है। मुझे पूरा विश्वास है कि श्री शिव नारायण सिंहजी द्वारा अपने विद्यार्थियों को विश्व मानव के रूप में देखा जानेवाला सपना एक दिन अवश्य ही साकार होगा।


मूल्यों के निर्माण कलश - Nov, 17 2025