समीक्षा

नवसृजन का आह्वान

आस्था, आशावादिता और आस्तिकता प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में बहुत आवश्यक है। सफलता की सीढ़ियाँ चढ़नेवाले विद्यार्थियों के लिए इनके बिना ऊँचाई तक जाना संभव ही नहीं होता। एक कुशल प्रधानाचार्य के लिए छात्रों को अपने उद्बोधनों से प्रार्थना-सभा में प्रत्येक दिन तैयार करना, भविष्य की लहलहाती फसल पाने का यह सहज-सरल तरीका है, जिसे श्री शिव नारायणजी नियम से करते हैं। विद्यार्थी अपनी दिनचर्या शुरू करने से पहले उनके सरस आख्यान-व्याख्यान सुनते हैं और अपना रास्ता निर्धारित करके पढ़ाई में जुट जाते हैं।

कथात्मक शैली में ये प्रसंग उन्हें स्वानुशासित करके ऊर्जा से ओत-प्रोत कर देते हैं। जो सामीप्य पुराने जमाने में गुरु-शिष्य संबंध स्थापित करते थे, उसकी छवि आज भी हमें उनकी प्रार्थना-सभा में देखने को मिलती है। ‘पिन ड्रॉप साइलेंस’ का वहाँ निर्मित हो जाना। हजारों विद्यार्थी और उनके आदरणीय गुरुजन प्रायः छात्रों के अभिभावक श्री शिव नारायण सिंह के श्रोता होते हैं, लेकिन वह वक्ता ही नहीं रहता, एक कुशल प्रशिक्षक भी बन जाता है। इसलिए अपने श्रोताओं के ध्यान-अवधान का वह पूरा विचार करता है और यह भी अनुमान लगाता रहता है कि जो कुछ वह बोल रहा है, उसे श्रोता हृदयंगम करते हैं या नहीं, कहीं चिकने घड़ों पर पानी पड़ने जैसी परिस्थिति तो नहीं आ रही है, वर्षा-जल की तरह लोग उसे बहने दे रहे हैं, जो गंदगी मिटाएगा बस इतना ही। श्री शिव नारायण सिंह वर्षा-जल का संचयन भी चाहते हैं, जो जल की कमी के समय काम में आए।

यह पुस्तक-प्रकाशन उस दिशा में किया गया एक विनम्र प्रयास है। इन खंडों से जो अमृत वर्षा होती है, उसका लाभ उनको भी मिलता है, जो वहाँ उपस्थित नहीं होते। वर्षा-जल का ऐसा संचयन बहुपयोगी होता है। सर्वहिताय होता है। सर्वकालिक होता है। इस वर्षा-जल में जीव विज्ञान है तो आध्यात्मिक ज्ञान भी है। इसमें वनस्पति शास्त्र, प्राणिशास्त्र, नैतिक शिक्षा, समाजशास्त्र, साहित्य, विज्ञान और अधुनातन अनुसंधान का समावेश है।

श्री शिव नारायण सिंह लिखते नहीं बोलते हैं। बोलने और लिखने के तरीके अलग-अलग हैं। बोलने में पुनरुक्ति का दोष नहीं माना जाता। व्याकरण, व्यवधान नहीं डालता। एकवचन, बहुवचन लिंग आदि के नियम बोलनेवाले पर लागू नहीं होते। जब शिव नारायणजी बोलते हैं तो उनकी जुबान चलती है और आँखें खुली रहती हैं। वे श्रोताओंð का अवधान अपनी ओर केंद्रित रखते हैं, किसी को भटकने नहीं देते। पाठक के लिए सावधान की स्थिति में रहना न तो संभव है और न स्वाभाविक, किंतु श्रोता अच्छे वक्ता की उपेक्षा नहीं कर सकता।

इसलिए वक्ता प्रायः विषय पर ठहरता नहीं। इधर से उधर जितनी जल्दी से जाता है, उतनी जल्दी से लौट भी आता है। ‘विद्यार्थियों से...’ को पढ़ते समय हमें उनके वक्ता होने का ध्यान होना चाहिए।

‘विद्यार्थियों से...’ ग्रंथ श्री शिव नारायण सिंह की योग्यता और उनकी उत्कृष्ट श्रेणी के लेखक होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। वे बहुत बड़ी संख्या में अपने विद्यार्थियों से एक साथ संवाद स्थापित करते हैं। उनकी शैली इतनी सरस है कि हृदय में उतरने में देरी नहीं लगाती। इसकी कथात्मकता बहुत रोचक और आकर्षक है। श्री सिंह सबको आखिर तक बाँधने में सफल होते हैं।

श्री शिव नारायण सिंह का चिंतन है कि गहरे में प्रवेश करने हेतु मन की अनंत शक्ति का बोध भी तो छात्रों को कराना है। हमारे धर्मग्रंथों में मन की निंदा ही की गई है। उसकी ऊर्जा और क्षमता से बच्चों को परिचित ही नहीं कराया गया। मन चंचल है—उसे वश में कीजिए। मन में अश्वशक्ति है—उसे नियंत्रित कीजिए, लेकिन मन से पहचान भी जरूरी है। मन का स्वभाव भी जानना चाहिए। मन के अनुकूल और उसके प्रतिकूल का ध्यान रखनेवाले उसे हर तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं।

श्री शिव नारायण सिंह ने मन के विषय में ऐसा ही सोचा है। उन्होंने मन को जाना है, समझा है और वे चाहते हैं कि आप भी मन को इस्तेमाल करने के लिए उसे जानें-समझें। ‘मन की तमाम फ्रीक्वेंसी हैं’ और जब उस लेवल पर जाकर मन एकाग्र होता है तो वह इसी तरह कार्य करता है, जिस तरह से एक्स-रे मशीन कार्य करती है; अब सोचिए कितना पावरफुल होता है हमारा मन? अगर आप कंसंट्रेट फॉर्म में कोई चिंतन करें तो निश्चित रूप से आप उसके निष्कर्ष तक पहुँच ही जाएँगे, रिजल्ट आपके हाथ में होगा, यह बात एकदम सत्य है। यहाँ यह कहना सही है कि अगर आप कंसंट्रेट हैं और किसी चीज का चिंतन करते-करते आगे बढ़ते हैं तो आप वहाँ पहुँच ही जाते हैं, जहाँ आपका ध्येय है।

प्रिय विद्यार्थियो, हमारे अंदर कितनी ही अनंत संभावनाएँ भरी पड़.ा् हैं और उन्हें जानकर लोग पुरुष से महापुरुष हो जाते हैं। महापुरुष होने की जो कड़ी है, उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है अपने मन को कंसंट्रेट करना। जिसने भी अपने मन को कंसंट्रेट किया है, वह निश्चित ही अपने जीवन के लक्ष्य तक पहुँचा है।

(विद्यार्थियों से... खंड-छह, पृष्ठ-42)

 

श्री शिव नारायण सिंह जब बोलते हैं तो उनके मन की गति सीधी रेखा में नहीं चलती। वह तिर्यक होती है। उसमें वैविध्य होता है। उसमें अनेकरूपता होती है। इसके साथ ही जब वे चाहते हैं तो मन को केंद्रित और नियंत्रित करके एक दिशा में आगे बढ़ते हैं। तब भटकाव, बिखराव या किसी का प्रभाव देखा नहीं जा सकता। सबकुछ शिव नारायण सिंह का होता है। पूरी तरह लकीर पर, परंपरा पर और आधुनिकता से परिपूर्ण होता है। उनकी भाषा में जो प्रवाह होता है, वह प्रभावपूर्ण होता है।

इस बात को दुहराते हुए मैं कहना चाहूँगा कि जब कही हुई बात लिखी जाती है तो उसे व्याकरण सम्मत होना चाहिए। राष्ट्र-भाषा की संयुति में विदेशी शब्द आने चाहिए, लेकिन हम ये स्वीकृति अपने नियम पालक को ही देंगे और उन्हें पर्यायवाची मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि उनका और हमारा परिवेश एक जैसा नहीं है। कंसंट्रेट के लिए केंद्रित (सेंट्रलाइज्ड) शब्द निकटवर्ती अर्थ बोध कराता है, लेकिन दोनों में चूल-से-चूल नहीं मिलती। मनन, चिंतनबोधक शब्द प्रयोजनीय हैं।

मूलपरक शिक्षण की आवश्यकता के लिए श्री शिव नारायण सिंह की ये बोधकथाएँ चरित्र-निर्माण और आदर्श की निर्मिति में बहुत सहायक हैं। आजकल जो अमर्यादा समाज में मिलती है, उसके निवारण के लिए श्री सिंह के ये व्याख्यान बहुत लाभकारी हैं। इनका लेखन-प्रकाशन भी बहुपयोगी और बहुत दूर तक जाने में सक्षम है।

श्री शिव नारायण सिंहजी ने जो रास्ता चुना है, वह न केवल सटीक और उच्च कोटि का है बल्कि वे अपने रास्ते पर विद्यालयीय पारंपरिक विधा में रहते हुए सफल भी हैं, क्योंकि उनके दृष्टिकेंद्र में हैं उनके विद्यार्थी। यहाँ कहना न होगा कि किसी भी दृष्टि का जो विशेष प्रभाव बालमन पर पड़ता है, वह उन्हें दिशा और उद्देश्य तक पहुँचा सकता है तथा उसका अभाव उन्हें भ्रमित भी कर सकता है। इसी विकट परिस्थिति से उबारकर उन्हें भारतीय सांस्कृतिक-परंपरा और जीवन-मूल्यों से जोड़ना ही नहीं, प्रासंगिक, सारगर्भित उद्बोधनों के संवादों को प्रभावी ढंग से बातचीत के क्रम में अनजाने में ही उन्हें सचेत एवं सचेष्ट कर जाना इनकी दिनचर्या है।

इनकी बोलचाल की शैली सरल-सहज-सरस एवं ओजपूर्ण है। मुझे तो उनके इस कार्य में भविष्य की अनंत संभावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, क्योंकि वे सदैव एक वीर योद्धा और साधक के रूप में निरंतर हैं, सतत हैं और चिरंतन हैं। उनके भीतर का चिंतक अपनी समस्त चेतना एवं ऊर्जा के साथ तथ्यों को विश्लेषित करता हुआ सत्य के भीतर प्रवेश कराकर ही मानता है, उनका उद्देश्य सकारात्मक सोच से प्रारंभ होकर प्रकाश, ऊर्जा और ज्ञान तक पहुँचाना है, नया संकल्प एवं नई दिशा देना है तथा विश्व मानव का निर्माण करना है।


मूल्यों के निर्माण कलश - Nov, 17 2025