लोककथाएँ धूप में पत्ती की तरह चलती हैं, छातों और परिभाषाओं के बिना पत्ती की नसों की तरह फैली इन कथाओं में हवा के साथ उड़ते हुए धूप में चमकना स्वयं में एक परिभाषा है। आकार में होते हुए भी आकारहीन होने की, धूप की उजास में प्रकाश को धारण करने की, हवा के प्रवाह में गतिशील होने की। इनके ऊपर शास्त्र के छाते नहीं होते, न रस्सियों में बँधा ज्ञान होता है। इनमें होता है शब्दों का खुलापन, जो अर्थ को रस्सियों से आजाद करता है। ये एक कथाकार द्वारा एक समय में कही गई कथाएँ नहीं होतीं, बल्कि इनकी लंबी परंपरा होती है, जो वैदिक काल से भी पीछे जाती है। इसकी फंतासी में केवल मनुष्य नहीं, पूरा लोक होता है और इसमें होते हैं—देव, यक्ष, किन्नर, साँप, मेढक, दुंदुभी, अप्सरा, पशु, पक्षी, नदी, सरोवर, पर्वत, पठार, रेगिस्तान, ऋतुएँ—ये सभी इनमें पात्र बनकर आते हैं। इनका तार-तार मकड़ी के जाले की तरह अलग-अलग और जुड़ा दिखाई देता है।
ये कथाएँ कहती हैं कि इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं होता। प्रेम, द्वेष, शत्रुता, मित्रता, अपना-पराया, देश-विदेश यहाँ तक कि विचार भी काल देवता के आहार बन जाते हैं। विश्वास किसी पर नहीं किया जा सकता, न शास्त्राðं पर, न ज्ञान पर, न साधनों पर, न मित्रों पर और न संबंधियों पर, न स्वयं के ज्ञान पर—पर जुटाना सबको होगा और अंतिम निर्णय दूसरों की सलाह लेने के बाद भी अपने ही विवेक से करना होगा। ये वाचिक परंपरा से सीधे हृदय में उतरती है और हमें शिक्षित ही नहीं, ज्ञानवान बनाती है, नीति के नियमों को खोलती है, सत्य की पगडंडियों पर चलने का हौसला देती है और अंधकार से घने क्षणों में प्रकाश का स्रोत है।
ये पहले परिवार में माँ-दादी के मुँह से, गाँव में सयानों के मुँह से, पाठशाला में गुरुओं के मुँह से, समाज में अनुभवी लोगों के मुँह से फूटती थीं और हमें विराट् से जोड़ती थीं। ये ऐसा ज्ञानकोष होती थीं कि जीवन के सारे संदर्भों का अर्थ पाने के लिए इसमें हम विश्वास के साथ प्रवेश करते थे और हर बार अर्थ संपन्न होकर बाहर आते थे। धीरे-धीरे यह परंपरा टूटती गई और दादी-माँ का स्थान प्ले स्कूलों ने ले लिया, कार्टून और कॉमिक्स ने नीति और विवेक के आधार को ही तोड़ दिया। कंप्यूटरों, इंटरनेटों, फेसबुकों से सूचनाएँ बरसने लगीं और ज्ञान के स्रोत सूखने लगे।
‘इंडिया टुडे’ की एक रिपोर्ट मिसाल-बेमिसाल में जब मैंने पढ़ा कि एक अत्यंत आधुनिक स्कूल का प्रधानाचार्य रोज की प्रार्थना-सभा में अपने छात्रों को एक कथा सुनाता है और यह क्रम कई वर्षों से चल रहा है तो उसे जानने की जिज्ञासा हुई, वे मेरे ही शहर के हैं। यह जानकर एक सुखद आश्चर्य भी हुआ और गर्व भी, तभी एक दिन वे मिले और सुनाई गई कथाओं के छह मुद्रित खंड जब मुझे भेंट में दिए तो मेरे मन में उनके लिए सम्मान और बढ़ गया। वे विष्णु शर्मा, विट्ठल आदि की परंपरा को आधुनिक युग में आगे बढ़ा रहे हैं। बातचीत के बाद मुझे लगा कि वे ऐसे शिक्षाशास्त्रा् हैं, जो यह मानते हैं और जो समझते हैं कि शिक्षा को बोझ बनाकर निरीह छात्रों पर लाद देने की जगह पर एक ऐसा खेल बनाया जा सकता है कि वे अपना मन बहलाते हुए सीख सकें और शरारत करते हुए जान सकें। ‘विद्यार्थियों से ...’ के सभी खंड मैंने पढ़े और एक नए ज्ञानकोश की रचना के लिए मैंने उन्हें बधाई दी।
ये कथाएँ छात्रों को सुनाई गई हैं। इसलिए स्वरूप वाचिक हैं। इसलिए इनमें शब्द का ठहराव नहीं, वाणी का प्रवाह है और यही प्रवाह हमें जीवनरूपी नदी के किनारे ले जाता है। नदी की लहरों पर ये कथाएँ दीप सी बहती हैं। उछलते-कूदते, घाट और घाटियों को देखते, सुनसान अड़ारों और जगमगाते नगरों को देखते हुए यह यात्रा कुछ ही दूर जाती है, लेकिन जाती है तो प्रकाश की एक किरण बनकर ये सारे दीये मिलकर एक दीपमाला बनाते हैं, जो पर्वत से सागर तक फैली हुई है, जिसमें सब दिखता है—सृजन से विसर्जन तक।
श्री शिव नारायण सिंह अपने विद्यार्थियों से कहते हैं—“जो होता है वह दिखाई नहीं देता, जो दिखाई पड़ता है वह होता नहीं...’ जिसने स्वयं को जान लिया, उसे फिर किसी और को जानने की जरूरत नहीं।” इन कथाओं में स्वयं को जानने के पथों का संकेत किया गया है, वे ज्ञान-परंपरा से परिचित कराते हुए, सरल समाधानों से बचने का प्रयत्न कराती है और यह बताती हैं कि मुख्य बात जीवन की बदली हुई परिस्थितियों को खुली नजर से देखना और उसके अनुसार निर्णय लेना है। जीवन की नदी का जल बदलता रहता है, लेकिन प्रवाह बना रहता है। जीवन जल का संचय नहीं, उसका प्रवाह है, जो पर्वतों से फूटता है और तमाम झरनों के जल का संचय करते हुए धारा के रूप में आगे बढ़ता है और चट्टानों, वनों से होता हुआ सागर तक की यात्रा करता है। यह यात्रा कभी रुकती नहीं, अनवरत जारी रहती है। यही प्रवाह जीवन है।
कथाओं की आँख इस जीवन को पूरी समग्रता से देखती है। यह आँख उपस्थित को तो देखती ही है, अनुपस्थित को भी देखती है। बहुत सी खाली जगहें जिन्हें, केवल साहित्य की आँख ही देख पाती है। जैसे—आचार व विचार के बीच, आदर्श एवं यथार्थ के बीच, दृश्य एवं अदृश्य के बीच, गूँजों-अनुगूँजों और सन्नाटे के बीच।
शिव नारायण सिंह ने इन जगहों को देखा और महसूस किया है तब कहा है। ये सरल और सहज कथाएँ धरातल का निर्माण करती हैं, जिन पर आचार व विचार का महल बनता है, उसके कक्षों, गलियारों रत्न-सोधों का निर्माण होता है।
शिव नारायण सिंह का दृढ़ विश्वास है कि शिक्षा स्थितिशील नहीं, गतिशील होनी चाहिए, क्योंकि जीवन से उसका घनिष्ठ रिश्ता है। उसका क्रम बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बदलना चाहिए। वह तोता-रटंत या अंधी नकल न होकर दिव्य प्रकाश है, जिसके सहारे व्यक्ति या राष्ट्र अपना भविष्य बनाते हैं, मनुष्यता का विकास करते हैं। भारतीय संस्कृति समन्वय की साधना है। उसकी आधारभूत विशेषता है, जीवन को समग्रता में ग्रहण करना। समन्वय की साधना का मंत्र इन कथाओं से बार-बार फूटता है—शंखध्वनि की तरह, जो पाठकों को एक पवित्र और दिव्य आलोक से भर देता है।
सफल किस्सागो श्री सिंह एक चिंतनशील विचारक भी हैं और ये कथाएँ नीति दीपक में जलनेवाली वैचारिक दीपशिखाएँ हैं। वाचिक परंपरा से अक्षर परंपरा तक की इस विचार यात्रा का यात्री बनकर व्यक्ति संपन्न होता है।