समीक्षा

नैतिकता के बीज-वपन करते बोधकथाओं के क्रमिक खंड

आपु आपु कहँ सब भला, अपने कहँ कोइ कोइ,

 तुलसी सब कहँ जो भलो, सुजन सराहिय सोइ।

अपने लिए तो सभी भले होते हैं और सभी अपने लिए भलाई का कार्य करने में लगे रहते हैं, किंतु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो स्वयं का भला करने के साथ ही मित्र एवं संबंधियों के भले के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, तुलसीदासजी के अनुसार इनसे भी श्रेष्ठ व्यक्ति वे होते हैं, जो सभी को भला मानकर, उनकी भलाई करने में लगे रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों की सज्जन व्यक्तियों के द्वारा सराहना की जाती है।

श्री सिंह का व्यक्तित्व भी ऐसा ही है, जो सबको भला मानकर उनकी भलाई करने में लगे रहते हैं, कभी-कभी मुझे लगता है कि उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में ही कल्पना कर रखी थी कि मुझे एक ऐसी संस्था का निर्माण करना है, जो समाज और व्यक्ति का सर्वांगीण विकास कर सके और माध्यम बनाया विद्यालय और शिक्षा।

शिक्षा का उद्देश्य है कि वह व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार करे और उसे इस योग्य बनाए कि वह अपने जीवन मूल्यों और चरित्र निर्माण के संबंध में विश्वास के साथ निर्णय ले सके तथा अपने पुरुषार्थ को प्राप्त कर सके।

प्राचीनकाल में शास्त्राðं की परंपरा में ही लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर नीतिकारों ने अनेक नीति ग्रंथों की रचना की। जैसे हितोपदेश, जातक कथाएँ इसमें आचार्य श्री विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र ग्रंथ हैं, जो विशेष सरल होने पर भी बड़े महत्त्व का है। इस अनुपम कृति ‘पंचतंत्र’ की रचना कैसे हुई, इस बारे में कहा जाता है कि दक्षिण में महिलारोप्य नामक नगर में अमरशक्ति नाम का एक राजा था। उसके बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनंतशक्ति नाम के तीन पुत्र थे, ये तीनों ही महामूर्ख थे। राजा ने इन बालकों को सुबुद्ध बनाने के लिए विष्णु शर्मा नामक विद्वान् को सौंप दिया। विष्णु शर्मा उन कुमारों को अपने साथ ले गए और उन्हें बुद्धिमान बनाने के लिए उन्होंने पाँच तंत्रों की रचना की। जो मित्रभेद, मित्र संप्राप्ति, काकोलूकीय, लब्धप्रणाश एवं अपरीक्षित कारक हैं। इन्हीं पाँच तंत्रों का समवाय पंचतंत्र कहलाता है। कुछ इसी तरह आज के परिवेश में नीति विषयक कथाओं के प्रणेता प्रेस्टिज इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य श्री शिव नारायण सिंहजी ने अपनी पुस्तक ‘विद्यार्थियों से...’ खंड एक से लेकर खंड छह को अपनी वचनामृत की वर्षा कर प्रस्तुत किया है।

जो दैनंदिन विद्यालय की प्रार्थना-सभा में श्री सिंह की मुखारबिंद से निस्सृत हो कथात्मक प्रेरक प्रवचन अविरल और अबाध गति से प्रवाहित होता रहता है और आशा करते हैं कि ऐसे ही सत्संकल्पों से पूरित भगवत्कृपा से अनगिनत बोधकथाओं के खंड समाज के सामने प्रस्तुत करते रहें। जिससे बालक, युवा, वृद्ध, नर-नारी सभी जीवनपयोगी ज्ञान को प्राप्त कर सकें।

‘विद्यार्थियों से...’ पुस्तक का नामकरण ही अपने आप में सार्थक, दिव्य और मधुर है। विद्यार्थी यौगिक शब्द है, जो दो शब्दों के योग से मिलकर बना है। विद्या+अर्थी। (विद्या) का अर्थ है ज्ञान और (अर्थी) प्रयोजन (उद्देश्य) या ग्रहण, एवं ‘से’ का अर्थ है द्वारा या जोड़ना।

श्री सिंह की बोधकथाओं के अंतिम वाक्य का अर्थ ‘आप इस दिशा में लगे हैं, लगे रहेंगे, आप सफल हो रहे हैं, आप सफल होते रहेंगे, आप सफल हों। ‘से’ शब्द की सार्थकता को सिद्ध करता है कि आप अपने लक्ष्य या प्रयोजन से ‘जुड़े हुए हैं’ अर्थात् ज्ञान के द्वारा अपने लक्ष्य तक पहुँचना।

श्री सिंह अपने विद्यालय में पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ नीति विषयक एवं बोधकथाओं के माध्यम से बच्चों को सुसंस्कृत, आचरणवान, विनम्रता, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, साहस, सहजता, स्पष्टता, सहृदयता, स्वार्थहीनता, धैर्य, शांति, नियंत्रण, अनुशासन, व्यावहारिकता का ज्ञान दिलाने का सत्प्रयास करते रहते हैं, क्योंकि केवल पुस्तकीय ज्ञान से नैतिक शिक्षा के उद्देश्य को पूरा नहीं किया जा सकता।

श्री सिंह के कथा-कथन का मुख्य आधार संत, महापुरुष, धनिक, राजकुमार, वैज्ञानिक, बूढ़ा, मोर, काग, कछुआ, मृग, चूहा, कबूतर, बाघ, मुसाफिर, धूर्त गीदड़, विलाव, चिड़िया, संन्यासी, हाथी, बनिया, बैल, घोड़ा, सिंह और आसपास के घटनाचक्र होते हैं। श्री सिंह के उद्बोधनों ने शिक्षितों से लेकर अशिक्षितों तक, नगर से लेकर दूर अगम्य ग्राम्यांचलों तक, प्राइमरी से लेकर सेकेंडरी स्कूल तक, कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय तक, लोगों का मनोरंजन और जीवन-निर्माण किया है।

श्री सिंह की कथाओं के माध्यम से अपनी जीवन-दृष्टि को दूसरों तक पहुँचाने की कला अनूठी तथा आर्ष परंपरा के अनुकूल है, यह मैं प्रथम दृष्टि में ही समझ गया।

खंड-एक की कथा है, ‘पात्रता’ पृष्ठ-172। इस कथा को पढ़ते हुए मुझे एहसास हुआ कि मन को माँजे बिना व्यक्ति कुछ नहीं पा सकता है, कथा इस प्रकार है—एक नगरसेठ की इच्छा थी कि वह भगवान बुद्ध को अपने यहाँ भोजन पर आमंत्रित करे, ताकि भगवान् बुद्ध प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दें।

सेठ के मन में भगवान् बुद्ध को भोजन कराने की इच्छा, भोजन बनवाना, कमंडल में गोबर भरा होना, भोजन को कमंडल में डालना और मनचाहा आशीर्वाद पाना। ये सभी बातें इस ओर इंगित करती हैं कि व्यक्ति को कुछ भी पाने के लिए अपने को उस योग्य बनाना होगा। मन शुद्ध, स्वच्छ करना होगा तभी अभीप्सित वस्तु मिल सकती है। यह छोटी सी घटना कमंडल माँजना और आशीर्वाद माँगना सेठ की जीवन शैली को बदल देती है। सेठ की भाँति समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन अपना मूल्यांकन करना चाहिए, ताकि वह अपने उद्देश्य में सफल हो सके।

श्री सिंह के कथा-कथन के शब्द छोटे और सरल होते हुए भी बोधगम्य और सारगभ्üिात होते हैं, जो मानस-पटल पर सीधा प्रभाव डालते हैं। वास्तव में ये बोध कथाएँ रस (आनंद) की छोटी पिचकारियाँ हैं, जो मुँह से छूटते ही श्रोता और पाठक को सिक्त कर देती हैं।

खंड-दो पृष्ठ-140 पर बोधकथा है—‘बंधन’। आज के अर्थ प्रधान समाज में व्यक्ति के पास सबकुछ है, फिर भी वह बेचैन रहता है और बेचैनी का कारण वह स्वयं है। यह बोधकथा राजा, राजगुरु, राजगुरु के लड़के के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को एक नई दिशा प्रदान कर जीवन जीने का पथ दिखाकर उसके जीवन में शांति लाने का प्रयास करती दिखाई पड़ती है।

लड़का, राजा और अपने पिता राजगुरु को जंगल में ले जाता है और रस्सियों से राजा और पिता को अलग-अलग पेड़ से बाँध देता है और कहता है, मैं खाने-पीने की व्यवस्था करके आता हूँ, कई दिन बीतने के बाद जब लड़का नहीं आता है तो राजा की बेचैनी बढ़ती है, राजा को ध्यान आता है कि उसकी बेचैनी का कारण विषय-भोग और सुख-सुविधाओं के लालच का बंधन है तो उसे शांति कैसे मिलेगी। रस्सी के बंधन की अपेक्षा मन का बंधन बहुत मजबूत होता है। राजा ने मन के बंधन को काटकर, परिस्थितियों के कपाट खोलकर शांति को प्राप्त कर लिया।

मेरे विचार से इस अर्थ प्रधानयुग में ये बोध कथाएँ उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितना कि भोजन में नमक। ये बोधकथाएँ जैसे सवेरा, आगे बढ़े जा, विचार मंथन, आतुरता, महानता का सूत्र, कथनी और करनी, शिष्टाचार, सुअवसर, सज्जन, कुसंगति आदि कथाएँ जीवन में विसंगतियों को उसी प्रकार बदल देती हैं जैसे काली पृष्ठभूमि पर बने चित्र उभरकर उसके मानसपटल पर हमेशा अंकित हो जाते हैं। जैसे—बुद्ध के उपदेश से अंगुलिमाल का जीवनपथ ही बदल गया।

खंड-तीन की बोधकथा सदा सत्य बोलनेवाले मंत्री की लीजिए। राजा ने मंत्री से असत्य बुलवाना चाहा। मंत्री ने जानबूझकर ऐसा असत्य कहा, जिससे पक्षी के प्राण बचे। ऐसे असत्य को असत्य नहीं कहा जा सकता। राजा के अहं-भाव की तुष्टि और मन की यशोलिप्सा के अभाव के बीच श्रोता (पाठक) सत्य की खोज के लिए तिलमिलाता है औñर श्री सिंह सत्य की प्रामाणिकता पर अपनी दृष्टि उजागर करते हैं, सभी की दृष्टि उजागर करते हैं।

कथाओं के माध्यम से सत्य का अन्वेषण और सफलता के मार्ग का इशारा भारत की प्राचीन परंपरा रही है, जो आज मर रही है। प्रेमपूर्ण आचरण के अभाव में ही हमारे धर्म-संप्रदाय, विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक माध्यम बच्चों-बूढ़ों तक के मन में वैमनस्य, सेक्स, हिंसा, भ्रष्टाचार, आक्रामकता और घृणा के बीज बोकर अपनी धनात्मक फसल काट रहे हैं, ऐसे में श्री सिंह एक अविकल, कल-कल करती आर्ष-वाणी की कल्लोलिनी प्रवाहित कर रहे हैं।

खंड-चार की बोधकथा है—‘दुर्गुणी पौधा’ पृष्ठ-158। उनका मंतव्य इस प्रकार है कि एक माली के बगीचे में सुंदर-सुंदर पौधों के बीच में एक ऐसा पौधा निकल आता है, जो सभी पौधों से सुंदर है और उसमें भी अन्य पौधों की तरह सुंदर फूल आते हैं, किंतु उस फूल के आते ही बगीचे में चारों तरफ सुगंध की जगह दुर्गंध फैल जाती है। यहाँ यह बोधकथा आज के हिंसात्मक परिवेश को दरशाती है। बगीचा शरीर है, माली जान है, सुगंध और दुर्गंध विचार हैं। मानव परिस्थितियों का दास होता है, परिस्थितिवश उसके मन में अच्छे-बुरे दोनों विचार उठते हैं, अच्छे विचार आते हैं तो उसका परिणाम सकारात्मक निकलेगा और बुरे विचार आते हैं तो उसका परिणाम नकारात्मक निकलेगा, जैसे—हिंसा, भ्रष्टाचार, आतंक, लोभ। जिससे पूरा विश्व त्रस्त है, इसलिए गंदे विचार मन में आते ही इसे उखाड़ फेंकिए।

देश और समाज के लिए नैतिकता एक प्रश्नचिह्न बना हुआ है, क्योंकि हमारे देश का अतीत रत्नों से भी अधिक जाज्वल्यमान रहा है। इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, पर बड़े दुःख की बात है कि ऐसा विश्व शिरोमणि भारत देश आज पतन की ओर जा रहा है। इसका प्रमुख कारण पाश्चात्य सभ्यता के अनुकरण ने हमारे घर, परिवार व छात्र, शिक्षक, विद्यालय, अभिभावकों, आम जनमानस को और समाज के वातावरण को बहुत दूषित बना दिया है, जिससे भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ आध्यात्मिक जीवन के ऊपर हावी हो रही हैं। जिससे राष्ट्र का नैतिक चरित्र ह्रासोन्मुख होता जा रहा है।

समाज में सुधार करना बड़ा ही कठिन कार्य है। पथभ्रष्ट व्यक्ति को नैतिक स्तर पर ले आना एक दुष्कर कार्य है। इस दुष्कर कार्य को साधने हेतु एवं समाज और देश के उत्कर्ष के लिए श्री सिंह ने अकेले ही अपने जीवन को ‘सत्य का प्रयोग’ बना दिया। जैसे समुद्र में बूँद की क्या गिनती है? बूँद का अस्तित्व ही क्या है? पर समुद्र भी तो बूँदों से मिलकर ही बना है।

श्री सिंह की अमृतोपम वाणी में इन बोधकथाओं के प्रत्येक खंड की सौ-सौ बोधकथाएँ वह बूँद है, जिससे नैतिकता का महासागर उत्पन्न होता है। मैंने तो इसमें नहाकर अपने आपको कृतार्थ कर लिया, अब तो यही कहूँगा कि आप समाज के सभी श्रेष्ठ जनों के साथ-साथ पथभ्रष्ट, दिशाहीन, दिशाभ्रमित व्यक्ति हों या फिर चाहे वे शिक्षक, अभिभावक हों या राष्ट्र के संचालक हों। सभी का दायित्व है कि इस नैतिकता के सागर में डुबकी लगाएँ और अपनी सोच, अपने चिंतन-मनन से, अपने जीवन में आत्मसात् कर इन छोटी-छोटी बोधकथाओं को पढ़कर, सुनकर, सुनाकर उन्हें नैतिक मूल्य समझाएँ, ताकि आनेवाली पीढ़ी भौतिकवादी, कामोत्तेजक, वासनामूलक, विभीषिकाओं से बच सके, क्योंकि इनके कथा-कथन नैतिकता के बीज-वपन के क्रमिक खंड हैं।

श्री सिंह की बोधकथाएँ भी बिहारी के ‘गागर में सागर’ भरने के लिए विख्यात हैं, गागर में सागर भरने का अभिप्राय है कि कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कह दी जाए। मुझे ऐसा लगता है कि ‘विद्यार्थियों से...’ के छहों खंडों की सभी बोधकथाओं में जीवन की सार्थकता समाहित है। श्री सिंह के कथा-कहन में वह वाक्चातुरी और शक्ति है, जो सीधे हृदय पर प्रभाव डालती है। इन सारी बोधकथाओं को पढ़ने के बाद यही उक्ति चरितार्थ है।

सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।

देखन को छोटे लगै, घाव करै गंभीर।।

वास्तव में ये बोधकथाएँ भारतीय जनमानस के लिए ही प्रेरक नहीं रही, बल्कि इसकी लोकप्रियता विश्वव्यापी हुई है।


मूल्यों के निर्माण कलश - Nov, 17 2025