समीक्षा

विष्णु शर्मा की परंपरा का आधुनिक विस्तार

 

कुछ दिन पूर्व मुझे देवरिया में एक इंटर कॉलेज के प्राचार्य श्री शिव नारायण सिंह की बाल-कहानियों का एक छोटा सा बंच प्राप्त हुआ। इन्हें पढ़कर मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ। सीधी, सरल और बोधगम्य भाषा में संकलित ये कथाएँ मुझे एकदम नई लगीं, जिन्हें बोधकथा कहना ज्यादा संगत होगा। ऐसे दौर में जबकि हिंदी का बाल-साहित्य बहुत समृद्ध नहीं है, बल्कि कहा जाए कि सबसे ज्यादा उपेक्षित है, बाल-साहित्य में आगे का क्रम, किशोरों के लिए साहित्य और भी कम लिखा गया, यह हिंदी में एक रिक्त स्थान की भाँति पड़ा हुआ है। श्री शिव नारायण सिंह ने एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की है, बेशक ये कहानियाँ किशोरवय के पाठकों को ध्यान में रखकर कही गई हैं, पर अपने प्रभाव में ये ज्यादा व्यापक हैं। इस रूप में ये बोध-कथाएँ अपने आसन्न उद्देश्य से आगे जाती हैं और साहित्य के बृहत्तर इतिहास का अंग बनती हैं।

खंड-एक के पृष्ठांकित अंश से ज्ञात होता है कि इन बोध-कथाओं का जन्म प्रार्थना-सभा में विद्यार्थियों से बातचीत करते समय स्वतःस्फूर्त ढंग से हुआ। यदि ऐसा है (और यहाँ लेखक के कथन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है) तो मैं रचनाकार की उर्वर कल्पनाशक्ति की दाद देना चाहूँगा, जो हमारे समय में दुर्लभ होती जा रही है।

इन कहानियों को पढ़ते समय दिलचस्प लगा कि विद्यार्थियों से वार्त्ता करते हुए लेखक के मन में जो विचार आए, विचार के क्रम में रूपक आए और कुछ अभिप्राय कथाओं में इनके माध्यम से बात करने का अलग प्रयास, इन सबने मुझे आकृष्ट किया। भाषा की सरलता, जो इस प्रकार के साहित्य के लिए आवश्यक तत्त्व है और इससे भी ज्यादा बालकों की रुचि के अनुकूल कथाओं के माध्यम से जो पद्धति विकसित की। एक सार्वभूत प्रक्रिया, एक वर्कशॉप जिसमें कर्म करते हुए पुस्तक बन गई। चेतनापूर्वक लिखी नहीं गई। इस क्रम में मुझे पंचतंत्र और उसके सर्जक विष्णु शर्मा की याद आई। विष्णु शर्मा की पुस्तक भी ऐसी ही थी। यह कथन थोड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण लग सकता है, पर कोई चाहे तो कह सकता है कि इन बोध कथाओं के लेखक ने विष्णु शर्मा के बाद...ठहर सी गई परंपरा को अपने ढंग से आगे बढ़ाया है। विष्णु शर्मा की कथा का लक्ष्य प्रायः कोई नैतिक उद्देश्य या किसी चीज का ज्ञान कराना होता था, इस कृति का लेखक भी ऐसे ही किसी उद्देश्य को लेकर चलता है, परंतु उसकी कथाशैली की रोचकता कहीं-कहीं उसमें साहित्यिक गुणवत्ता की सृष्टि भी करती है, जो उनके प्रयास को और अधिक सार्थक बनाती है।

यह हमारी प्राचीन पद्धति जो छूट गई थी। यहाँ टूटती हुई कड़ी को जोड़ने की चेष्टा की गई है। अपने यहाँ बालकों और किशोरों को पढ़ाने की प्रक्रिया मैकेनिकल और एक तरफा है, जिसमें अध्यापक कक्षा में बोलता है। छात्र की सहभागिता उसमें बिलकुल नहीं होती, लेकिन कहानी कहने की शैली छात्र को उसमें शामिल कर लेती है और वह इसमें डूबता चला जाता है। कहानी कहने की यह पद्धति अध्यापक और छात्र के संवाद की उस टूटी हुई कड़ी को जोड़ने जैसी है, ऐसा मैं मानता हूँ।

हिंदी साहित्य में इस प्रकार के काम का अभाव है, इसके पूर्व टैगोर ने बाल-साहित्य लिखा है, फिर प्रेमचंद ने कुछ लिखा, जिसमें छोटी-छोटी कहानियाँ और नाटक थे। प्राचार्य शिव नारायण सिंह ने बच्चों के लिए नए सिरे से यह अद्भुत कार्य करने की कोशिश की है। मुझे याद आता है कि टैगोर के अनुसार सुकुमार राय ने ‘आमूल-दामुल’ नाम से सबसे अच्छे बाल-साहित्य की रचना की है, जो नॉनसेंस (निरर्थक) साहित्य कहा जाता है, जैसे—लोरी (लोरी में तो थोड़ा अर्थ होता भी है), इसमें बच्चों का अक्कड़-बक्कड़वाला गीत शामिल है। रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं, “मैं फेल हो जाता हूँ ऐसी रचनाएँ करने में, जबकि मेरी कोशिश होती है कि मैं ऐसी रचना करूँ।” यहाँ टैगोर सुकुमार राय की प्रशंसा करते हैं। ऐसा कुछ हमारे यहाँ नहीं है, जिसके बारे में मैं कह सकता हूँ।

इस क्रम में शिव नारायण सिंह जो प्रयास कर रहे हैं, उसको आगे बढ़ाने की जरूरत है, साथ ही बच्चों को सुधारने की पद्धति में जो एक अंतर्विरोध है, उसपर पुनर्विचार की जरूरत है। यह पुस्तक इंगित करती है कि क्या बच्चें को पढ़ाने का कोई और तरीका हो सकता है? क्या पढ़ाई के पुराने ढंग, जैसे विष्णु शर्मा जैसी कोई नई शाखा-प्रशाखा निकल सकती है? शिव नारायण सिंह ने इसपर अपना एक प्रयोग किया है, जो मुझे अच्छा लगा।

मुझे कोई रूपक या कहानी नहीं याद आ रही है, लेकिन एक मोटा-मोटा प्रभाव मेरे मन पर पड़ा। मुझे पंचतंत्र की याद आ गई कि हमारी एक परंपरा रही है, इस परंपरा में हम जीव-वाद की कल्पना करते हैं। जीवों, पशु-पक्षियों की बात करते हैं, जो पर्यावरण के निकट है; विष्णु शर्मा के साहित्य में जीव-जंतु, पेड़-पौधे आपस में संवाद करते हैं। उनके कथा-साहित्य में एक जीवंत वातावरण का निर्माण होता है, वहीं शिव नारायण सिंह की इन बोधकथाओं के माध्यम से भी मेरे मन-मानस पर पर्यावरण का एक बृहत्तर स्वरूप उभरकर सामने आता है। इन कथाओं में पर्यावरण के साथ जो संवाद कायम हुआ है, वह विष्णु शर्मा की परंपरा को आगे बढ़ाता है।

मैं व्यक्तिगत रूप से शिव नारायण सिंह से मिला हूँ और उनसे लंबी वार्त्ता भी हुई है। मैंने उनके विद्यालय के परिवेश को भी देखा है और वहाँ पढ़नेवाले छात्र-छात्राओं को भी। उन सबके चेहरों पर मैंने एक सहज ज्ञान-पिपासा की आभा देखी है और उनकी आँखों में वह चमक भी, जिसमें निरंतर आगे बढ़ने का आत्मविश्वास होता है। उन्हें देखते हुए और विद्यालय के पूरे परिवेश का साक्षात्कार करते हुए मुझे लगातार शिव नारायण सिंह की बोधकथाएँ याद आ रही हैं। वस्तुतः यह उन कथाओं से निकला हुआ उजास था, जो मैंने बच्चों के चेहरों पर देखा था। एक पुस्तक अगर यह कर सके तो उसकी बहुत बड़ी सफलता माननी चाहिए और इसके लिए उस पूरे क्षेत्र को उसके सर्जक का आभारी होना चाहिए। मैंने कथाओं की इस सर्जनात्मकता को शिव नारायण सिंह के प्रशासन कौशल में भी देखा है। उनके लिए शिक्षण-कार्य एक सृजन कर्म की तरह है, जो मुझे उनकी बोध-कथाओं के साथ-साथ विद्यालय के पूरे परिवेश में भी दिखाई पड़ा।

वह व्यापक और विस्तृत परिवेश जिसमें से कथाकार ने तथ्यों का चयन करके उसे विद्यार्थियों के लिए सुगम, सरल और बोधगम्य बनाया है, जो अपने-आप में अलग मायने रखता है, क्योंकि उसमें चारों ओर जीवन के विविध रंग, गंध एवं स्पर्श बिखरे हुए हैं और जिससे विद्यार्थियों के लिए जीवन खुराक दिखाई पड़ती है। एकरसता, उबाऊपन तथा बासीपन इनमें कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता, बल्कि टटका बनाकर परोसे गए भोजन की ताजगी का स्वाद हर जगह मिलता है। जाहिर है कि ये विद्यार्थियों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए पुष्टिकर आहार की तरह ही उपयोगी है। मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि अपनी शोध-वृत्ति और सर्जना-कौशल के द्वारा रचनाकार अपने उद्देश्य में सफल हुआ है।

ऐसी बोधकथाओं के सर्जक एवं एक विलक्षण शिक्षण-संस्था के निर्माणकर्ता शिव नारायण सिंह को हार्दिक साधुवाद देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि उनकी अपनी इस विधा द्वारा हिंदी का बाल-साहित्य और समृद्ध होगा। यह देवरिया जनपद का सौभाग्य है कि उसे शिव नारायण सिंह जैसा सृजनात्मक चेतना से भरपूर और उर्वर कल्पना का धनी शिक्षा-वेत्ता मिला है। कुछ समय तक मैंने इस जनपद की शैक्षणिक सेवा की है, इसलिए इस क्षेत्र पर थोड़ा सा हक मेरा भी बनता है, यानी दिल्ली में रहते हुए भी इस जनपद की जो थोड़ी सी नागरिकता मुझे सहज ही मिल गई थी, उसे छोड़ना नहीं चाहता। अस्तु उस अधिकार पद से भी इन बोध-कथाओं के सर्जक और एक उत्कृष्ट शिक्षण-संस्था के निर्माता को ढेरों शुभकामनाएँ देता हूँ।

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प्रोफेसर केदारनाथ सिंह का जन्म 7 जुलाई 1934 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के चकिया गाँव में हुआ उन्होंने काशी के उदय प्रताप पी.जी. कालेज से स्नातक करने के उपरान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. और पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। कुछ वर्षों तक उदित नारायण पी. जी. कालेज पडरौना में शिक्षण कार्य करने के उपरांत वे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय दिल्ली चले आये वहीं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। वे प्रगतिशील काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि और नई कविता आन्दोलन के द्वितीय सप्तक के कवि कहलाए। उन्हें समस्त भारतीय भाषाओं के सबसे बड़े कवि के रूप में जाना जाता है। उनकी कविताओं में गाँव-जवार, लोकजीवन, मिट्टी की गंध, किसान, मजदूर और साधारण आदमी की संवेदनाएँ साफ दिखाई देती हैं। उन्होंने कठिन प्रतीकों और अलंकारों के बजाय सरल, सहज और बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया। उनकी प्रमुख कृतियों में अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकबर का जूता, तालस्तॉय और साइकिल और सृष्टि पर पहरा प्रमुख हैं। आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने कल्पना और छायावाद जैसी महत्त्वपूर्ण कृति दी है वहीं उनकी कविताओं में गाँव और प्रकृति का सौंदर्य, आम आदमी का संघर्ष और समकालीन जीवन की सच्चाईयाँ गहराई से झलकती हैं। प्रोफेसर केदारनाथ सिंह को उनके साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें 1987 में कविता संग्रह अकबर का जूता के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2013 में हिन्दी का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

 

ए-88/3 एस.एफ.एस. फ्लैट्स,

साकेत, नई दिल्ली

 


मूल्यों के निर्माण कलश - Nov, 03 2025