उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला और शहर में शिव नारायण सिंह पिछले पच्चीस वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रयत्न और प्रयोग कर रहे हैं—वह सब जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही अद्भुत होने के कारण आकर्षक भी है। शिव
नारायण सिंह का शिक्षा संबंधी प्रयोग रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा संबंधी प्रयत्नों और प्रयोगों की याद दिलाता है। रवींद्रनाथ टैगोर बहुत बड़े आदमी थे, बड़े होने के सभी अर्थों में—इसलिए उनका प्रयत्न और उनके प्रयोग भी बड़े थे तथा उसके परिणाम भी बड़े निकले।
शिव नारायण सिंह उतने बड़े आदमी नहीं हैं, लेकिन उनकी मूल चिंता, चेतना और कोशिश वैसी ही है, जैसी रवींद्रनाथ टैगोर की थी।
शिव नारायण सिंह जो विद्यालय चलाते हैं और उसमें छात्रों से जैसा आत्मीय और अंतरंग संबंध विकसित करते हैं, वह अनूठा एवं अनुकरणीय भी है। शिव नारायण सिंह शिक्षा की भारतीय परंपरा और पश्चिमी परंपरा के सुमेल से छात्रों में ऐसी चेतना जगाते हैं, जो उन्हें आत्म-बोध के साथ-साथ जगत्-बोध के विकास की प्रेरणा देता है। शिव नारायण सिंह छात्रों और छात्राओं से जो आत्मीय और अंतरंग संबंध बनाते हैं; उसका माध्यम है—संवाद। उनकी शिक्षा दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है संवाद-धर्मिता, जो आज के दूसरे विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा पद्धति में गौण ही नहीं गायब भी है। संवाद एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सारी दुनिया के पुराने जमाने के ज्ञान के निर्माण-विकास और विस्तार का माध्यम रही है।
भारतीय परंपरा में उपनिषद् संवाद की प्रक्रिया ही सर्वोत्तम ज्ञान की उपलब्धि है। उसी का विकास करने की चिंता रवींद्रनाथ टैगोर को थी, गांधी को थी और विनोबा भावे को भी। रवींद्रनाथ टैगोर की चिंता तब तक कायम रही, जब तक शांति-निकेतन श्री-निकेतन बना रहा, लेकिन जब वह भ्रांति-निकेतन बना, तब वह पश्चिमी ढंग का विश्वविद्यालय बन गया, जिसमें संवाद के बदले विवाद की प्रवृत्ति अधिक बढ़ी।
गांधीजी ने बुनियादी शिक्षा की जो बात और नीति निर्मित की, वह धीरे-धीरे विलीन हो गई। विनोबा के प्रयोग प्रारंभिक अवस्था से आगे नहीं बढ़ पाए, यह प्रसन्नता की बात है कि शिव नारायण सिंह का प्रयोग एवं प्रयत्न अब पच्चीस वर्षों से अधिक का है और सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है।
पश्चिम में ज्ञान के विकास की प्रक्रिया में संवाद की केंद्रीयता एवं भूमिका को देखना हो तो प्लेटो के संवादों को ठीक ढंग से मनोयोगपूर्वक पढ़ना और समझना जरूरी होगा। हम सुकरात एवं प्लेटो के सोच-विचार और ज्ञान को प्लेटो के संवादों के माध्यम से ही जानते हैं। भारतीय ज्ञान की परंपरा में जो स्थान और महत्त्व उपनिषदों का है, वही स्थान और महत्त्व पश्चिम की ज्ञान-परंपरा में प्लेटो के संवादों का है।
शिव नारायण सिंह अपने छात्रों से जो संवाद करते हैं—उसका संबंध एवं स्वभाव उपनिषदों की संवाद-धर्मिता से है और प्लेटो के संवादों से भी।
दुनिया भर में संवाद-धर्मिता का सर्वोत्तम रूप कथाओं में मिलता है। कथाओं की संरचना ही ऐसी होती है। जिसमें कम-से-कम दो व्यक्तियों की उपस्थिति के बिना कथा की प्रक्रिया पूरी नहीं होती, इन दो व्यक्तियों में से एक कथा कहनेवाला होता है तो एक या अनेक सुननेवाले होते हैं। इसी प्रक्रिया में भारत के गाँवों की चौपालों पर अनंत काल से कथा की परंपरा का प्रवाह गतिमान है। सारी दुनिया में कथा का मूल रूप लोक में कही-सुनी जानेवाली कथाएँ ही हैं, जिनका आगे चलकर विकास विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से कथा के विभिन्न रूपों में आधुनिक काल में हुआ है।
शिव नारायण सिंह की कथा की किताबें अब तक छह खंडों में छप चुकी हैं। ये कथाएँ मुख्यतः और मूलतः बोधकथाएँ हैं। बोधकथाएँ वे होती हैं—जिनके माध्यम से कोई-न-कोई संदेश या शिक्षा कथा कहनेवाला अपने श्रोताओं या पाठकों तक पहुँचाना चाहता है और उन कथाओं के माध्यम से श्रोताओं या पाठकों के जीवन एवं जगत्-बोध को जाग्रत्, उन्नत, विकासशील तथा गतिशील बनाता है। ऐसा माना जाता है कि कथा कहने की कला और परंपरा दुनिया को भारत से प्राप्त हुई है। संस्कृत साहित्य में कथा के अनेक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मौजूद हैं। भारत में कथा की परंपरा गुणाढ्य की रचना ‘वृहत्कथा’ से आरंभ होकर ‘कथासरित्सागर’ से होते हुए ‘पंचतंत्र’, ‘हितोपदेश’ और जातक-कथाओं के रूप में विकसित हुई है। संस्कृत साहित्य में और बाद की लोक भाषाओं में रचित कथाएँ बोधकथाएँ ही हैं।
शिव नारायण सिंह की कही और छपी हुई कथाएँ उसी भारतीय कथा की महान् परंपरा का आधुनिक विकास है। मेरे सामने शिव नारायण सिंह के कथा-संग्रहों के दो खंड हैं—खंड दो और खंड छह। इन दोनों खंडों को ध्यान से पढ़ने के बाद मेरी राय है कि इनकी कथाओं में बोधकथा का आधुनिक रूप ही नहीं है, कथा एवं कथ्य की दृष्टि से भी आधुनिक है और समकालीन भी। मैं इन दोनों खंडों की कुछ कथाओं पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ—ये सारी कथाएँ विद्यार्थियों के सामने सवेरे की प्रार्थना के बाद मौखिक रूप से कही गई कथाएँ हैं—जो बाद में लिपिबद्ध और प्रकाशित हुई हैं। इस प्रसंग में भी मुझे गांधी और विनोबा की याद आ रही है, क्योंकि वे दोनों ही प्रार्थना के बाद जो प्रवचन देते थे—उनका संग्रह और प्रकाशन हुआ है। मुझे स्वयं विनोबाजी की अनेक प्रार्थना-सभाओं में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और उनके प्रवचनों को सुनने का भी। उस अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि विनोबाजी भी अपनी प्रार्थना-सभा के प्रवचनों में बोधकथाओं का उपयोग करते थे। भारतीय बोधकथा की परंपरा हो या शिव नारायण सिंह की संकलित बोधकथाएँ हों, उनकी कला की विशेषताओं पर ध्यान देना जरूरी है।
शिव नारायण सिंह की बोधकथाओं की भाषा सरल और सहज है, उनकी कहन-शैली संवादधर्मी है, इसलिए श्रोताओं एवं पाठकों को उन बोधकथाओं को सुनने में सुख मिलता है, समझने में आसानी होती है और बोध प्राप्त करने में सुगमता होती है।
शिव नारायण सिंह की बोधकथा के खंड-दो में एक कथा का शीर्षक है—‘श्रमशील’। इस कथा को अगर आप पढ़िए या किसी से पढ़वाकर सुनिए तो उनकी कला के बारे में कही गई बातों के प्रमाण अनायास प्राप्त होंगे। बोधकथा में प्रायः प्रश्नोत्तरी शैली का प्रयोग किया जाता है। प्रश्नोत्तरी की शैली के माध्यम से बोध जगानेवाली कथाओं का अकूत भंडार है—‘महाभारत’। शिव नारायण सिंह ने ‘श्रमशील’ शीर्षक बोधकथा में तितली और मधुमक्खी के व्यवहारों एवं कार्य-व्यापारों का वर्णन करते हुए यह कहा है कि—
जो मधुमक्खी की तरह श्रमशील हैं, जिन्हें अपने भविष्य की चिंता है या यों कहिए जो कुछ कर गुजरना चाहते हैं, उनका रिजल्ट बेहतर होता है और जो तितली सा जीवनयापन करते हैं, उन्हें बस उसी क्षण की चिंता है या यों कहिए कि बिना कुछ किए ही मधु का तालाब पाना चाहते हैं—तो उन्हें मधु का तालाब कहाँ मिलेगा!
(विद्यार्थियों से... खंड-दो, पृष्ठ-4)
शिव नारायण सिंह अपनी बोधकथा के माध्यम से छात्र-छात्राओं को तरह-तरह की प्रेरणाएँ और शिक्षाएँ देते हैं। उनकी बोधकथा के दूसरे खंड में ही एक कथा यूनान के महान् विचारक ‘पाइथागोरस’ के बारे में है। पाइथागोरस ने किस तरह जीवन के सहज और सामान्य अनुभवों से अर्जित ज्ञान को वैज्ञानिक खोज के रूप में विकसित किया, इसका वर्णन उन्होंने किया है और उस कथा के अंत में छात्रों से कहा है कि—
आप जो चाहें बन सकते हैं। जरूरत है अपने अंतर्निहित गुणों का विकास करने की। अगर आप ऐसा कर पाते हैं तो निश्चित रूप से आपको वह ऊँचाई मिलेगी, जो आपको मिलनी चाहिए, जिसकी आपको कल्पना है।
(विद्यार्थियों से... खंड-दो, पृष्ठ-42)
अब शिव नारायण सिंह की बोधकथाओं के संग्रह खंड छह के दो उदाहरण देखिए—
पहले उदाहरण का शीर्षक है ‘तीन मूर्तियाँ’ इस बोधकथा में शिव नारायण सिंहजी ने बापू के तीन बंदरों की मूर्तियों की कथा कहते हुए छात्र-छात्राओं को जो शिक्षा दी है, उस ओर बापू के बंदरों की बात करनेवालों में से किसी का ध्यान अब तक शायद ही गया हो। इस बोधकथा में उन्होंने कहा है कि—
प्रिय विद्यार्थियो, मेरा आपसे यही कहना है कि कोई चीज आप सुनते हैं तो उस पर मनन कीजिए, उसपर प्रोसेसिंग कीजिए और उसमें जो सार हो, उसे ग्रहण कर लीजिए। यही उन मूर्तियों के साथ भी हुआ।
(विद्यार्थियों से... खंड-छह, पृष्ठ-99)
शिव नारायण सिंह जिस देवरिया शहर में अपना विद्यालय चलाते हैं, वहाँ से लगभग तीस-बत्तीस किलोमीटर की दूरी पर कुशीनगर नाम का कस्बा है—जो बौद्धों का महान् तीर्थ-स्थल भी है। उसी कुशीनगर में गौतम बुद्ध का ‘महापरिनिर्वाण’ हुआ था। ऐसा कैसे संभव है कि जिस शिव नारायण सिंह को सारी दुनिया के ज्ञानियों, दार्शनिकों और विचारकों की याद आए और वे गौतम बुद्ध को भूल जाएँ। उनकी बोधकथा के छठे खंड में एक कथा का शीर्षक है—‘अप्प दीपो भव’ यह गौतम बुद्ध के ज्ञान और विचारों का सार है। इसका अर्थ है—अपना दीपक आप बनो, अपने ज्ञान के लिए, विकास के लिए, उन्नति के लिए किसी का मुँह मत जोहो। इस मंत्र के माध्यम से गौतम बुद्ध ने मनुष्य को पूर्णतः स्वायत्त, स्वतंत्र और स्वावलंबी बनाया। इस मंत्र की सहज-सरल व्याख्या इस बोधकथा के विस्तार में है। इस मंत्र की आत्मा को पकड़ते हुए इस बोधकथा में शिव नारायण सिंह ने कहा है—
दूसरे का भरोसा कभी भी काम नहीं आता। आप भले ही इस बात को कह लें कि कभी-कभी काम आता है। वे अवसर कुछ और होते होंगे, लेकिन प्रायः ऐसा होता है कि वे चीजें आपके काम नहीं आतीं।
इसी कथा में उन्होंने आगे कहा है कि—अपने पास जो है, जितना है, जितना भी है, जैसा भी है, उसी का भरोसा करो, उसी को लेकर आगे बढ़ो। एक समय आएगा, जब वही धारणा में बदलेगा, वही आधार बनेगा, वही धरातल बनेगा और वही आपके भविष्य की नींव बनेगा।
(विद्यार्थियों से... खंड-छह, पृष्ठ-680-686)
मैंने शिव नारायण सिंह की बोधकथाओं को पढ़ते हुए बहुत कुछ नया सीखा है, समझा है और जाना है, इसलिए मैं उनका आभारी हूँ। साथ ही मैं उनके और उनके विद्यालय के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
प्रोफेसर मैनेजर पांडेय का जन्म 1941 में लोहड़ी गोपालगंज बिहार में हुआ। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा गाँव से प्राप्त की वहीं स्नातकोत्तर काशी हिंदू विश्वविद्यालय से। साहित्य के प्रति गहरी रुचि के कारण उन्होंने हिंदी आलोचना को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। पांडेय जी की कृतियों में भक्ति आंदोलन और हिंदी साहित्य, साहित्य और संस्कृति का विमर्श तथा आलोचना का समाजशास्त्र विशेष रूप से चर्चित हैं। उनकी आलोचना की दृष्टि मार्क्सवादी और समाजशास्त्रीय रही, जिसमें साहित्य को समाज और इतिहास से जोड़कर देखा गया। वे लंबे समय तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), नई दिल्ली में हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे। साहित्यिक विमर्श में उन्होंने नई दृष्टि और नए प्रतिमान प्रस्तुत किए। उनकी लेखनी में गहन शोध, तार्किक विश्लेषण और सामाजिक सरोकार स्पष्ट दिखाई देते हैं। हिंदी आलोचना को उन्होंने आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलित दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके कार्यों ने हिंदी साहित्य की आलोचना को नई दिशा और ऊँचाई दी।उन्हें शलाका सम्मान सहित अनेक महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुए ।
बी.डी./8 ए, डी.डी.ए. फ्लैट्स
मुनिरका, नई दिल्ली
साभार
मूल्यों के निर्माण कलश
प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली-02