समीक्षा

जामवंत की भूमिका में : एक अध्यापक

हमारे समय की विडंबनाओं में एक विडंबना यह भी है कि पहले शिक्षा के अनेकानेक स्रोत हमको अनजाने ही, अपने-आप सुलभ थे और हम अनायास सीखते रहते थे, बिना यह जाने कि हमें कुछ सिखाया जा रहा है। इन

स्रेतों में प्राकृतिक पर्यावरण और गली-मुहल्ले के मानवीय भूगोल के अलावा माता-पिता, भाई-बहन और स्कूल में पढ़ानेवाले अध्यापक भी शामिल थे। मुझे अच्छी तरह याद है, उस उम्र में यह अध्यापक नाम की विभूति मेरे मन में जैसा आकर्षण, जैसा कौतूहल, जैसा रहस्य-भाव एवं श्रद्धाभाव उत्पन्न करती थी, वैसा और कोई नहीं कर पाता था। वे मुझे सामान्य धरातल के लोग लगते ही नहीं थे—पूरे लड़कपन के दौरान अपने अध्यापकों के प्रति मेरा यह भाव अक्षुण्ण बना रहा। महत्त्वाकांक्षा के नाम पर जो जगता था मन में, वह भी यही कि सबसे स्पृहणीय, सबसे ऊँचा, सबसे अद्भुत गरिमामय पेशा यही है दुनिया में अध्यापक का तो, बस अध्यापक बन जाऊँ फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए। अपने अध्यापकों की तुलना में कलेक्टर, थानेदार, तहसीलदार, व्यापारी, वकील, डॉक्टर सब हीन ही नहीं, अजीब करुण और हास्यास्पद लगा करते थे पता नहीं क्यों?

ये अध्यापक भी एक सरीखे नहीं होते थे। हर अध्यापक एक विलक्षण ‘कैरेक्टर’ हुआ करता था। उनकी नकल उड़ाते हुए भी हमारे मन में उनके प्रति श्रद्धा या स्पृहाभाव रत्ती भर भी कम नहीं होता था। सबसे ज्यादा आकर्षण उनके प्रति, जो अपना विषय पढ़ाने के साथ-साथ बड़ी मनोरंजक और चमकीली घटनाएँ और कथा-प्रसंग भी छेड़ते रहते थे। कक्षा में उनकी बारी आने की हमें उत्कट प्रतीक्षा रहती और वे कभी भी हमें निराश नहीं करते। बाद में हमने जाना, उन्होंने अनौपचारिक ढंग से हमें कितना कुछ सिखा दिया, जो हमें कोई और नहीं सिखा सकता था।

अब बच्चों को, लड़कों को, नौजवानों को—शिक्षा की हर श्रेणी के छात्रों को न अपने माँ-बाप से उस तरह जीवन के पाठ सीखने और अनजाने जज्ब करने का अवसर मिलता है, न अपने स्कूल-कॉलेज के अध्यापकों से। अध्यापन आज महज ‘ट्यूशन’ में रिड्यूस होकर रह गया है। लगता ही नहीं लड़कों को कि अध्यापक कुछ ऐसा सिखा पढ़ा सकता है, जो किताबें और नोट्स आसानी से नहीं सिखा सकते। आज अध्यापक नई पीढ़ी के लिए पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुका है। जीवन-दीक्षा की तो बात ही दरकिनार, रुटीन पाठ्यक्रम से निबटने के लिए भी छात्रों को उसकी खास दरकार नहीं रही। तथाकथित ज्ञान के विस्फोट के इस युग में अब स्कूल और कॉलेज के रंगरूटों को कोई यह भरोसा नहीं दिला सकता कि ये जो पहले से कहीं ज्यादा खुशहाल, अच्छे-खासे वेतनभोगी जंतु उनकी क्लास ले रहे हैं, केवल वही इस तथाकथित ज्ञान के ही नहीं, जीवन-विद्या के भी एकमात्र प्रामाणिक और अपरिहार्य-अनिवार्य अधिष्ठान हैं।

ऐसे में शिव नारायण सिंह नाम के एक मामूली से कस्बे के, मामूली से विद्यालय के प्राचार्य की ये पच्चीस सौ पृष्ठों में निबद्ध करतूतें इस दुनिया की नहीं लगतीं बल्कि उस दुनिया की लगती हैं, जिसमें कभी हम बड़े हुए थे। मगर जो विस्मयकारी ढंग से धीरे-धीरे हममें कुछ ऐसा जगा देती हैं, जिसके लिए हम तैयार तो नहीं थे—मगर फिर भी भीतर कहीं हमारा मन कहता है, यह आदमी अकेला और अजूबा नहीं हो सकता। जरूर ऐसे कई लोग इस देश में, हर शहर में और कस्बों में अब भी होंगे, होंगे क्या, हैं ही। दुनिया मरी नहीं है, उसमें अभी भी जान बाकी है।

अध्यापक और छात्र के बीच का वह नायाब रिश्ता भी अभी मरा नहीं, जीवित है। सिर्फ हमें ऐसी घोर निराशा और अविश्वास की लत पड़ गई है, जिससे कि ये किताबें, ये जीवंत व्याख्यान! सचमुच स्कूल के हर लड़कों को संबोधित कर हमसे उसी तरह बात करती, हमें अपने घेरे में उसी तरह लपेट लेती है, जिस तरह पचास-साठ-सत्तर साल पहले लपेटती थी। वह ओरल ट्रेडीशन थी—वाचिक संप्रेषण था, यों तो वाचिक संप्रेषण ही है। ये पुस्तकें भी अपने उद्गम में, संप्रेषण-प्रक्रिया में—अगर हम कृतज्ञ होते हैं छपाई नाम की चीज के प्रति, जिसकी बदौलत हमें पता चला कि अभी सबकुछ नष्ट नहीं हुआ, सबकुछ बचाया जा सकता है बचाने लायक और सबकुछ आगे भी बचा रहेगा। शिव नारायण सिंह सरीखे जन्मजात और सहज पुरुषार्थी अध्यापकों की बदौलत।

सोचता हूँ, कहाँ कब सुनी थी ये कथाएँ हमने। अपने माँ-बाप, गुरुजनों या घर में आनेवाले सयानों, बड़े-बूढ़ों या रमता जोगी के मुँह से? अरे नहीं! फिर स्वाद इनका वैसा ही पुराने आख्यानों जैसा क्यों है? वही चाव क्यों जग रहा है मन में। यहाँ अंगद और रावण तपस्वी-मुनि—बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर ही नहीं हैं—इसी आपके शहर के परिचित भी हैं, राजा ही नहीं, मचान पर रात बितानेवाला घर का बुजुर्ग भी है, गांधी के बंदर भी हैं कई सारे नए जमाने के ‘कैरेक्टर्स’ भी हैं। यहाँ वैसी बोधकथा भी है, जो हाइजेन वर्ग सरीखे परमाणु विज्ञानी से ताल्लुक रखती है। इसे सुनने के बाद क्या कोई साइंस की ऊँची-से-ऊँची पढ़ाई करनेवाला छात्र—हाइजेन वर्ग के ‘अनसर्टेंटी प्रिंसिपल’ से भी ऐसा आत्मीय रिश्ता नहीं कायम कर लेगा, जैसा वह कभी न कर पाता? मैं खुद चकित हो गया इस प्रसंग को पढ़कर। स्वप्न और यथार्थ जैसी चीजें पढ़कर।

निश्चित ही ये सब बोधकथाएँ हैं। पहले साहित्यकार भी ‘बोध’ का निमित्त और उद्गम हुआ करता था। आज उसने भी अपनी वह सनातन भूमिका छोड़ दी। शिव नारायणजी के लिए अध्यापन मात्र जीविका नहीं, तथाकथित ‘मिशन’ भी नहीं, एक जीवनव्यापी व्यसन है, अंतरात्मिक आदेश और जरूरत है। वे यह नहीं करते तो शायद जिंदा नहीं रह सकते थे, जिंदा होने का अर्थ उन्होंने ढूँढ़ा—इसीलिए पाया और उसका लगातार रोज-ब-रोज साझा किया—उनके साथ, जो जिंदों में भी सबसे जिंदा होते हैं। जो इसी जीने की देहरी पर खड़े हुए हैं। वे ये सबक कभी नहीं भूलेंगे, नहीं भूल सकते जो कक्षा में जाने से पहले ही उनके भीतर कोने-कोने में उतार दिए गए उनके प्राचार्य द्वारा।

तो...धन्यवाद, तुम्हारा इन दैनिक उद्बोधनों के उद्गम—इस शिक्षा-द्रोही, शिक्षक-द्रोही, ज्ञान-द्रोही, जीवन-द्रोही समय का रुख पलट देने जैसे अध्यवसाय में सिर से पाँव तक डूबे मेरे सहयात्री! तुमने, तुम्हारी इन करतूतों ने मुझमें वह ‘इमोशन’ जगा दिया, जो मैं तो समझ बैठा था, आज मर चुका है, अब नहीं जगेगा कभी। खत्म हो चुका है वह सब, उजड़ चुकी है वो दुनिया।

तुम्हारी बसाई इन किस्से-कहानियों की नहीं, सचमुच के रागों, जीवन-रागों की दुनिया एक समूची पीढ़ी को दीक्षित कर सकती है और करेगी, बशर्ते लोगों तक ये पहुँचे, बशर्ते स्वयं अध्यापक नाम के जीव जो इस देश में लाखों की तादाद में हैं और अपनी भूमिका, अपना स्वधर्म, अपना महत्त्व सब भूल चुके हैं—इन्हें पढ़ें-गुनें। तब वे पाएँगे कि उन्हें न केवल हनुमान की तरह सब याद आ गया है बल्कि वे जरठ जामवंतवाली भूमिका भी निभा सकते हैं—हजारों आत्म-विस्मृत हनुमानों को याद दिलाने की कि वे कौन हैं? और क्या कर सकते हैं? आज भी। अभी भी। 

                                                              

 

 

पद्मश्री प्रोफेसर रमेश चंद्र शाह का जन्म 15 नवंबर 1937 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा में हुआ। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से प्राप्त की और आगे चलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. तथा आगरा विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि हासिल की। विभिन्न छोटे बड़े स्कूलों और कॉलेजों में अध्यापन करते हुए भोपाल स्थित हमीदिया कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य विभाग के प्रोफेसर फिर अध्यक्ष बने। वहीं से वर्ष 1997 में सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद 1997 से 2000 तक भोपाल स्थित भारत भवन के निराला सृजनपीठ के निदेशक पद पर कार्यरत रहे। पद्मश्री प्रोफेसर रमेश चंद्र शाह का साहित्यिक व्यक्तित्व उत्तराखंड की प्रकृति प्रेम, जीवनदर्शन और गहरी मानवीय अनुभूति से उपजा है। उनका साहित्य सामाजिक, सांस्कृतिक और मानव मनोविज्ञान के जटिल पहलुओं को सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है। हिंदी भाषा में उनकी विविध विधाओं की रचनाएँ पाठकों को गहराई से प्रभावित करती हैं, उनकी कहानियाँ और काव्य पाठ आम हिंदुस्तानी के अंदर छुपे चिंतनशील मनोभावों को उजागर करते हुए व्यंग्य, संवेदना और आत्मचिंतन का सुंदर मिश्रण पेश करती हैं अनेक साहित्यिक पुरस्कारों के साथ-साथ 2004 में राष्ट्र के चौथे महत्त्वपूर्ण सम्मान पद्मश्री से सम्मानित हुए।

 

एम-4, निराला नगर, भदभदा रोड

भोपाल (म.प्र.)


मूल्यों के निर्माण कलश - Nov, 03 2025