समीक्षा

भारत का भविष्य गढ़ता एक शिक्षक

छोटी-छोटी कहानियों और बोधकथाओं ने पूरी दुनिया के सैकड़ों महापुरुषों के जीवन को प्रेरणा देकर सार्थक बनाया है। बालकों और किशोरों के मन पर कथाएँ जीवन का संस्कार करती हैं, उन्हें रास्ता दिखाती हैं।

संस्कार चाहे देशप्रेम के हों, चाहे मानव सेवा के, ईश्वर की भक्ति के हों या किसी विद्या की साधना के, पूरे जीवन हमारी कठिनाइयों के बीच आत्मविश्वास भरने का काम करते हैं। अगर ये संस्कार हमें परिवार से विरासत के रूप में या स्कूल के शिक्षक से मिले हों तो वे दिल और दिमाग में गहराई से बैठ जाते हैं। एक शिक्षक अपने ज्ञान, जीवन और चरित्र से अपने छात्रों को गढ़ता है, उन्हें एक नया सपना देखने और उसे धरती पर साकार करने की संकल्पशक्ति भी प्रदान करता है।

श्री शिव नारायण सिंहजी एक आदर्श शिक्षक हैं। प्रतिदिन स्कूल की प्रार्थना-सभा में वे अपने छात्रों से छोटी-छोटी बोधकथाओं के माध्यम से उनसे संवाद करते हैं और संस्कार भी देते हैं। पिछले कई वर्षों से यह संस्कार यज्ञ अनवरत चल रहा है और अनगिनत छात्रों ने उनके इस अभिनव प्रभाव से मार्गदर्शन एवं जीवन की प्रेरणा प्राप्त की है। संस्कारहीनता के इस दौर में इन कथाओं के सहारे शिव नारायण सिंहजी महान् गुरु और उस काम-कथन को सार्थक कर रहे हैं कि धन, विद्या, कला, प्रेम और जो कुछ भी तुम्हें प्रिय है, उसे उदारता से बाँट दो। अपने आत्मविश्वास और विनम्रता से अपने कर्मशीलता एवं त्याग के मूर्तिमंत श्री शिव नारायण सिंहजी की यह संस्कार-यात्रा अनवरत चलती रहे और उनके इस प्रयास की कीर्ति पूरे भारत की शिक्षा-व्यवस्था को संस्कारित कर सके, नई पीढ़ी को एक रास्ता दिखा सके, यह मेरी प्रार्थना है और शुभकामना भी है—छहों खंड मिलाकर लगभग पच्चीस सौ पृष्ठों पर शिव नारायण सिंहजी ने जो संवाद अपने विद्याथ्üिायों से किए हैं, उनके कुछ अंश मैं आपके सामने रखता हूँ। उन्हें देखकर, पढ़-सुनकर आप स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि यह कार्य एक ऐसे शिक्षक का है, जो भावी भारत का भविष्य गढ़ रहा है।

आपके साथ भी तमाम चीजें ऐसी हैं, जो संस्कारगत आपके साथ बनी हुई हैं और यहाँ हम लाख कोशिश करते हैं, तब भी उसे नहीं बदल पा रहे हैं या बदल पा रहे हैं तो आंशिक ही या आप उसे बदलने ही नहीं दे रहे हैं। आखिर हम करें तो करें क्या? हमारी भी एक सीमा है, सीमा तक तो हम आपके साथ कोशिश कर सकते हैं, प्रयास कर सकते हैं, लग सकते हैं। लेकिन उसके बाद की जो स्थिति है, वह आपकी अपनी है। यह आपके ऊपर निर्भर है कि आप अपने को बदल पा रहे हैं या नहीं, अगर आप बदलना चाहेंगे तो निश्चित ही बदल लेंगे।

(विद्यार्थियों से... खंड-पाँच, पृष्ठ-135)

 

यहाँ एक अजीब कशमकश में हैं शिव नारायण सिंह, वे हर हाल में सबकुछ बदलने पर तुले हैं। उन्हें अपना आदर्श परिणाम चाहिए, चाहे जो कीमत चुकानी पड़े। वे पीछे हटते नहीं बल्कि चुकाने के लिए तैयार दिखते हैं और यही कारण है कि वे अपने इस अनोखे प्रयोग में सफल भी हैं। वे जैसा चाहते हैं अपने विद्यार्थियों से वैसा करा ही लेते हैं। यह बात केवल कहने और देखने की नहीं बल्कि अब तो जगजाहिर हो चुकी है।

यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे अपना लक्ष्य पाकर रहेंगे। उनका देखा हुआ सपना सच एवं सफल होकर रहेगा। उनके विद्यार्थी ही उन्हें वहाँ पहुँचा देंगे जहाँ वे उन्हें पहुँचाना चाहते हैं। कहीं-न-कहीं यही गुरु-शिष्य के बीच का वह अनोखा अद्वितीय रिश्ता है, जो एक से दूसरा और दूसरे से पहला प्राण पाता है, प्रतिष्ठा पाता है, जीवन आनंद पाता है। तभी तो वे कह उठते हैं—एक रास्ता प्रेय का है, दूसरा श्रेय का; एक रास्ता पतन का है, दूसरा उत्थान का; एक पछतावे का है, दूसरा गर्व करने का; एक पलायन का है, दूसरा चुनौती का; एक समस्या का है, दूसरा समाधान का; एक अनिश्चय का है और दूसरा निश्चय का; एक अदूरदर्शिता का है और दूसरा दूरदर्शिता का; एक असफल होने का है दूसरा सफल होने का। तय आपको करना है कि आप कौन सा रास्ता चुनते हैं, कौन सा रास्ता चुनेंगे आप? जो भी रास्ता आप चुनेंगे वह आपको उसी मंजिल तक पहुँचाएगा, जहाँ तक उसकी पहुँच होगी। अतः वही रास्ता आप चुनें जो आपको आपकी मंजिल तक पहुँचाए।

(विद्यार्थियों से... खंड-चार, पृष्ठ-57)

 

एक बात जो यहाँ बहुत स्पष्ट है कि शिव नारायण सिंह माननेवाले व्यक्ति नहीं हैं, चल दिए तो बस चल दिए, बिना मंजिल मिले रुकनेवाले नहीं, यही भाव वे हर हाल में अपने विद्यार्थियों के दिलोदिमाग में बैठाना चाहते हैं, बैठाते आ रहे हैं, मुझे वे पारस पत्थर लगते हैं जिसे छूते ही लोहा सोना बन जाता है अपने पुराने सारे गुणधर्म भूलकर। ठीक वही स्थिति उन विद्यार्थियों की होती है—जो उनके करीब, उनके परिवार, उनके विद्यालय में प्रवेश कर जाते हैं। नहीं तो ऐसा क्यों और कैसे संभव था, जहाँ वे थोड़ी भी गुंजाइश और अवसर नहीं छोड़ते। कोई रास्ता ऐसा नहीं है जो उनसे दूर ले जा सके, उनके सान्निध्य लाभ लेने के बाद और सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं, केवल एक ही रास्ता शेष रह जाता है और वह है—उनकी मंजिल, उनका लक्ष्य, उनका उद्देश्य, उनका औचित्य, उनका अस्तित्व, उनका वह सबकुछ जिसके लिए उन्होंने यह शरीर धारण किया है और इस पृथ्वी को दर्शान्वित किया है, सबकुछ कल्पना के अनुकूल धरातल पर उतरा हुआ जैसे कोई स्वप्न द्रष्टा स्वप्न देखता है और वही सचमुच में हो जाता है। कुछ ऐसी ही स्थिति में शिव नारायणजी को देखता हूँ।

कहते-कहते एक जगह वे कह रहे हैं, जैसे एक गाड़ी का ड्राइवर जो अपनी सीट पर बैठता है और जब तक गाड़ी में ईंधन है, सबकुछ ठीक-ठाक है, वह गाड़ी चलाता रहता है, लेकिन जब ईंधन समाप्त हो जाता है या फिर गाड़ी में कोई टेक्निकल प्रॉब्लम आ जाती है तो उतरकर बाहर खड़ा हो जाता है और इसपर उसका कोई वश नहीं है और अब वह इसमें कुछ नहीं कर सकता, रंचमात्र भी आगे नहीं बढ़ा सकता। काश, उसे गाड़ी की टेक्निकल जानकारी होती तो शायद ऐसा नहीं होता। वह बाहर नहीं खड़ा होता, जरूर उसे ठीक करता और आगे बढ़ जाता।

हम भी ठीक उसी ड्राइवर की तरह हैं जो गाड़ी तो चलाता है, लेकिन जैसे ही कोई टेक्निकल प्रॉब्लम आती है, वह गाड़ी छोड़कर किनारे हो जाता है। मालिक तो वह है, जो उसके बारे में सबकुछ जानता है। गाड़ी बिगड़ी, तुरंत बनाया और आगे बढ़ लिए, उसे हम मालिक कहेंगे। ड्राइवर या संचालक उसे कहेंगे, जो कोई टेक्निकल प्रॉब्लम आने पर गाड़ी को छोड़कर किनारे हो लेता है। अब आप स्वयं तय कर सकते हैं कि आप ड्राइवर हैं या मालिक। यह आपका शरीर ईश्वर की रचना है, जो आपको मिला हुआ है, लेकिन आप इसे कैसे जीते हैं? यही मैं आपसे पूछना चाहता हूँ। जो बातें मैंने अभी यहाँ आपसे कहीं, यही जीवन जीने की कला है।

(विद्यार्थियों से... खंड-छह ‘रुई का पहाड़’ पृष्ठ-166)

 

यही सब तो मेरे लिए आश्चर्य एवं विस्मय का विषय बन गया है कि एक साधारण शिक्षक अपने विद्यार्थियों के बीच जिनकी समझ बहुत विकसित नहीं है, फिर भी इतने गूढ़ विषयों को कैसे ढंग से उन्हें समझा देता है। यहाँ जीवन जीने की कला हम इस उम्र में भी कहाँ ठीक से समझ पाते हैं और यह व्यक्ति उन छोटे बच्चों को कैसे ड्राइवर और मालिक का उदाहरण देकर समझा देता है। बस यही जीवन जीने की कला है कि हम स्वयं के मालिक हैं, जैसे चाहेंगे कर ले जाएँगे, कर सकते हैं और करेंगे भी, क्योंकि करने में ऐसा कुछ भी नहीं दिखता, जो न किया जा सके।

कहीं-न-कहीं यही इस व्यक्ति की सफलता का राज है कि वह विद्यार्थियों को ही नहीं, सभी वर्ग के लिए अपनी बात रखता है, प्रश्न उठाता है, उत्तर देता है, रास्ता निकालता है और मंजिल तक पहुँचाकर ही मानता है।

मुझे तो लगने लगा है कि वे लोग वाकई बहुत भाग्यशाली हैं, जो इस अदने से दिखनेवाले शिक्षक के साथ किसी-न-किसी रूप में जुड़े हैं, वे अपना तो परिष्कार कर ही रहे हैं, साथ-ही-साथ उनसे जुड़नेवाला भी परिष्कृत होता नजर आ रहा है।

यहाँ यह कहना ही होगा—एक शिक्षक क्या कुछ नहीं कर सकता, वह सबकुछ कर सकता है और हो-न-हो यही शिक्षक भारत का भविष्य गढ़ता नजर आए।


मूल्यों के निर्माण कलश - Nov, 17 2025